शातिर ठगों के गिरोहों द्वारा बदलती अर्थव्यवस्था से उपजे नव धनाढ्यों को किसी फर्जी अंतराष्ट्रीय संस्था का अर्थहीन अवार्ड दिलाने का धंधा काफी दिनों से चल रहा है। इन लोगों में चाय, बिस्कुट,पान-मसाला,हलवाई,यौन रोगों के झोला छाप डाक्टर, बिल्डर्स,निजी स्कूलों के मालिकान आदि शामिल हैं, जो कभी न कभी लम्बी रकम के बदले, विदेशों में किसी फिरंगी के हाथों ऐसा अवार्ड प्राप्त कर चुके हैं। और मजे की बात तो यह है कि सरासर बेवकूफ बनने के बाद भी यह लोग विज्ञापनों के माध्यम से इसका बेशर्मी से डट कर खुले आम प्रचार भी करते हैं। कुछ-कुछ ऐसा खबरों की दुनियां में भी हो रहा है। एक आम पाठक मीडिया में छपी खबरों को सही मानता है। लेकिन खबरों और खबरों छपे विज्ञापनों में भेद कर पाना उसके लिए बेहद मुश्किल है। पत्रकारिता के मानदंडों, मूल्यों और नैतिकता को ताक पर रखते हुए अब इसमें हर कोई हाथ धोने में लगा हुआ है। 22 अगस्त,2005 के अंक में इण्डिया टुडे (हिन्दी संस्करण) द्वारा इंम्पैक्ट फीचर के माध्यम से ऐसे कई लोगों का जीवन चरित छापा जा चुका है।
अभी तक इन विज्ञापनों को खबरों की तरह छापा जा रहा था और अब एक नयी पहल इनको पुस्तक के रूप में छाप कर की जाने ल्रगी है। सबसे पहले सहारा समूह के प्रमुख की जीवनी छापने वाले दि टाईम्स आफ इण्डिया, लखनऊ ने एक बार फिर 'विजन' नाम से एक पुस्तक प्रकाशित की है जिसमें 31 लोगों के जीवन चरित छापे गए हैं,जिन्हें 'लीजेन्ड आफ उत्तर प्रदेश' के वर्गीकरण से सुशोभित किया गया है। इन लोगों के चयन का आधार क्या है, पुस्तक में इसका कोई भी उल्लेख नहीं है। आम पाठक की नजरों में तो केवल यह सब लोग ही उत्तर प्रदेश के विशिष्ट जन हैं क्योंकि एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र ने पुस्तक के माध्यम से इसे प्रमाणित किया है। कोई बड़ी बात नहीं कि कुछ दिनों के बाद बाजार में ऐसी पुस्तकों की बाढ़ आ जाए क्योंकि अन्य समाचार पत्रों में इसकी तैयारियां शुरू हो गयी होंगी। बिना किसी नियम और आधार के प्रकाशित होने ऐसी पुस्तकों में कोई भी सिर्फ पैसा खर्च कर अपने बारे में कुछ भी छपवा सकेगा। तब भ्रष्टाचारियों और अपराधियों को महिमामंडित करती ऐसी पुस्तकों से पाठकों को क्या मिलेगा, इसका तो अंदाज लगाया जाना आसान है पर बैंकों की तरफ दौड़ते समाचार पत्र कितनी कमाई कर रहे होंगे,यह पता लगाना मुश्किल होगा। यह एक भयावह स्थिति है।
खबरों को पर्दे के पीछे बेचने के बाद अब खुले आम इसे बेचा जाना मीडिया की विश्वसनीयता पर एक सवालिया निशान लगा रहा है। पत्रकारिता की अस्मिता से खेलने वाले मीडिया के पुरोधाओं – बन्द करों इस खेल को।
फना के बाद परवाने की मइयत नहीं उठती
गुनहगारे मुहब्बत का यही अंजाम होता है।
4 टिप्पणियां:
अनिलजी,
इस नयी धन्धेबाजी से परिचय कराने के लिए शुक्रिया.
आपके विचार पढ़कर अच्छा लगा। आप द्वारा उठाया गया मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है। इस गोरखधन्धे का प्रतिकार केवल लोगों को इसके प्रति सचेत करके और उनकी सूचना-साक्षरता बढ़ाकर किया जा सकता है।
ऐसे ही और गम्भीर और महत्वपूर्ण विषयों पर आपके विचार की प्रतीक्षा रहेगी।
नमस्कार अनिल जी,
मैं यूनिकोड मे लिखती हूँ| आप व्यू (view) में जाकर इन्कोडिंग (encoding)सलेक्ट करें और फिर उनीकोड (unicode) पर किल्क करें| शायद आपकी समस्या का समाधान हो सके|
वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है यह सब, पर यह जमाना बाजार वाद का है यहाँ हर चीज बिकती है। जब बिकने वाला,बेचने वाला और यहाँ तक की खरीदने वाले को भी कोई आपत्ति नहीं दिखती है।
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